Saturday 2 November 2013

शुभ दीपावली....

असतो मा सद्गमय ही रहे प्रेरणास्रोत,
प्रेम और सौहार्द का व्याप्त रहे आलोक,
व्याप्त रहे आलोक ज्ञान का हो उजियारा,
सुखी, शाँत संतुष्ट रहे सँसार हमारा।।

दीपों का पर्व आपके एवं आपके परिवार को अनवरत खुशियों का प्रारम्भ दे, इसी कामना के साथ -
हितेश

Sunday 14 July 2013

ख़याल

“हेलो”
“हेलो. कैसे हो?”
“बस कुछ अच्छा नहीं लग रहा. काफी परेशान हूँ.”
“मैं भी.”
“हे क्या हुआ?”
“सब गड़बड़ हो रहा है. आज तो सुबह सुबह से ही जाने क्या हुआ है. कुछ नहीं बन रहा है. बहुत घबराहट हो रही है. शायद इसीलिए तबियत भी खराब लग रही है. कोई रास्ता नहीं सूझ रहा.....कैसे होगा सब.....”
“हे स्वीटी. अरे सब हो जाएगा. तुम परेशान क्यूँ होती हो.  एक फेज़ है थोड़ा मुश्किल. बीत जाएगा.”
“पता नहीं........”
“हे तुम रो रही हो........”
“..............”
“हे हे हे मेरी चन्दा. सब ठीक होगा. मैं हूँ ना. हम मिलके सॉल्व करेंगे. आप अकेले थोड़े हो. यकीन है न मुझपे.........”
“................”
“हे आप मेरी ताकत हो. और इतनी समझदार. आप से तो मुझे हिम्मत मिलती है जी. और अब तो बस हो गया है न. ज़रा सी मुश्किल है. तुम देखना सब ठीक होगा. जैसा आप चाहती हो....”
“.........”
“हे मैं कोई आपसे दूर थोड़े हूँ. बिल्कुल पास हूँ. देखो तो ज़रा आँखें बंद करके. चलो बंद करो. देखो मैं एकदम पास हूँ. हूँ न?”
“हूँ.........”
“चलो अब महसूस करो मैं आपके एकदम नज़दीक हूँ. फील कर सकती हो न जी.....आओ मेरे पास आ जाओ और मेरे गले लग जाओ. मेरी चन्दा.... और सुनो कोई भी परेशानी आपको नहीं हरा सकती. जो भी मुश्किल आपको परेशान करेगी न, उसकी तो खटिया खड़ी कर दूंगा मैं.... ढिशुम ढिशुम से....”
“अच्छा......”
“और नहीं तो क्या. पागल. चलो मुस्कराओ. तुम मुस्कराओगी तो पता चल जाएगा हमें.”
“.....पता है....”
“ठीक हो?”
“हूँ”
“चलो अब उठो जाओ मुँह धुलो. और कुछ खाया तो होगा नहीं अब तक?”
“ऊँहूँ....”
“तो जाओ फ़टाफ़ट फ्रेश हो कुछ खाओ और मुझे बताओ.... ओके?”
“ठीक”
“चलो. गुड डे. लव यू”
“हे. तुम भी तो परेशान थे. क्या हुआ”
“अरे कुछ नहीं जी. सब बढ़िया है. तुम खुश रहना. और हाँ नाश्ता करके अपनी एक स्माइल करती हुई फोटो भेज देना मेल पे.”
“तुम परेशान थे. बताओ”
“इडियट. अपना ख्याल रखो. मैं बढ़िया हूँ. टेक केयर. एंड हे, लव यू अ लॉट.”
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Saturday 13 July 2013

तुम्ही बता दो

तुम्ही बता दो कि तुममें है क्या
जो हम दीवाने से हो रहे हैं
तुम्हारे चेहरे, तुम्हारी ज़ुल्फों
तुम्हारी आँखों में खो रहे हैं.
तुम्ही बता दो कि तुममे है क्या
जो हम दीवाने से हो रहे हैं

नहीं है दिन में कोई सुकूँ अब
न रात में नींद है ज़रा सी
खुली सी पलकों में बस तुम्हारे
हसीन सपने सँजो रहे हैं.
तुम्ही बता दो कि तुममें है क्या
जो हम दीवाने से हो रहे हैं

ये बारिशों की हसीन रिमझिम
औ आसमां पे ये सप्तरंगी
तुम्हारे आने की आरज़ू में
गुलों की चादर पिरो रहे हैं.
तुम्ही बता दो कि तुममें है क्या
जो हम दीवाने से हो रहे हैं

हमीं नहीं क़ायनात सारी
तुम्हारे दम से महक रही है
तुम्हारी साँसों की खुशबुओं से
ही सारे मदहोश हो रहे हैं...
तुम्ही बता दो कि तुममें है क्या

जो हम दीवाने से हो रहे हैं

रिश्ते...

रिश्ते चाहे कम कर दे
लेकिन प्यार भरे कर दे.
इज्ज़त दौलत ना दे खुदा
मुझे नींद का बिस्तर दे.
राह गलत ना पकडूँ मैं
मुझमें अपना डर भर दे.
दिल में दर्द लबालब है
रो लूँ कुछ ऐसा कर दे.
मेरा हौसला कम ना हो
हाथ मेरे सर पर रख दे.

अभिलाषा

कल
मेरा तीन साल का बेटा
मेरे पास आया
और अपनी तोतली बोली में
थोड़ा तुनक कर मुझसे बोला
“पापा
मुझे जल्दी से बड़ा होना है.”
मैंने पूछा
“क्यों बेटा क्या हुआ”
तो उसने बताया
मम्मा टी.वी. नहीं देखने देती
कहती है
टी.वी. देखने से आँखें खराब हो जाती हैं
आप भी
अपने लैपटॉप पर काम नहीं करने देते
“काऊ” मुझे मारती है
कोई मुझे पानी में खेलने नहीं देता
कोल्ड्रिंक नहीं पीने देता
हर काम पर रोकते हैं
कहते हैं
बड़े होना फिर करना
मैं जल्दी से बड़ा हो जाऊँगा
फिर सब करूँगा
कोई नहीं रोकेगा.”
बेटा चुप हो गया
मैं सोचने लगा
कभी मैं भी छोटा था
इतना ही
जब सब मुझे भी टोकते थे
मुझे भी खूब बुरा लगता था
काश
कि वक्त लौट आता
मैं फिर से छोटा बन जाता
कोई फिर से मुझे भी रोकता
काश
मुझे फिर से
पापा के घर आने के समय
टी.वी. देखने से डर लगता
काश
पापा फिर से पढ़ाते
डाँटते
मारते.
काश
मम्मी फिर से
स्कूल के लिए सुबह उठाती
टिफिन तैयार करती
काश
फिर स्कूल में
होमवर्क न करने पर सजा मिलती
काश
फिर इम्तिहान होते
और हम एक-एक नम्बर के लिए
मैम से गिडगिडाते
काश
फिर से
हमें धूप में न खेलने की हिदायतें मिलती.
काश
मैं फिर
नए कपड़े के लिए जिद कर पाता
और कुछ पाने पर
उतना ही खुश हों पाता
काश
होली पर
रात में फिर दादी गुझिया बनाती
और मैं
गरम गरम खाने की लालच में
जाग कर बनवाता
काश
दीपावली पर पटाखे चलाता
और सावन में झूले झूलता.....
काश.....
मैंने बेटे को देखा
उसके बचपन को निहारा
मैंने कहा
“हाँ बेटे
आप बहुत बड़े बनोगे
सब करोगे
मगर
इतनी जल्दी मत बड़े हो
बचपन को जी लो
इसका आनंद कभी नहीं मिलेगा
और फिर
मैं भी तो
आपमें अपना बचपन जी रहा हूँ
आपके साथ खेलता हूँ
सब भूल कर
लगता है फिर बच्चा हूँ.
मेरा बचपन हो आप.
बड़े होना
खूब बड़े होना
मगर धीरे-धीरे.
मैं बोलता गया
जाने कब तक
मगर शायद
मेरी बातें
उसकी समझ में
नहीं आयीं थीं
क्योंकि
जब मैं अपनी तन्द्रा से जगा
वो अपनी माँ के साथ

अक्कड-बक्कड़ खेल रहा था.

उसके साथ के पल...

उसके साथ के पल
कितने छोटे लगते हैं;
हाँ,
जितने होते हैं, उससे भी कहीं छोटे
समय बीतता नहीं
उड़ता है पंख लगाकर.
मगर यही छोटे पल
बीतने के बाद
ख़ुशी भर जाते हैं
अगले कई दिनों में
अपनी यादों से.
जब अकेले में
मैं मुस्कुराता हूँ
हँसता हूँ
सीटी बजाता हूँ
और न जाने क्या क्या करता हूँ
अनायास.
इन्ही सब के ज़रिये तो
ख़ुशी छलकती जाती है
उन छोटे पलों की
कई दिनों तक.
जैसे इत्र की एक बूँद
महकाती है देर तक

सारी हवा.

सफर

न बदले तुम न बदले हम
न भूले तुम न भूले हम
मिले हैं बाद मुद्दत के
हैं बिलकुल सामने फिर भी
अजब सी बात है अब तक
न बोले तुम न बोले हम.
हाथ में ले कोई पुस्तक
तुम्हारे सामने हूँ मैं
और तुम आँख मूँदे हो
यह जो उपकर अपनी जब में रख रखा है तुमने
और जो तार इससे तुमने कानों में लगाए हैं
तुम शायद इनसे ही भेजी हुई
सुमधुर संगीत की तानों में खोये हो.
है मुझको याद वो दिन
जब हमारी जेब में पैसे कम
मगर दिल में ज़ज्बात भरपूर होते थे
घूमते तब भी थे हम साथ में
और तब
न दिल में और न गाड़ी को खिड़कियों में ही
दूर कर दें जो एहसासों को ऐसे काँच होते थे.

न केवल तुम न केवल मैं
मगर पूरा का पूरा कूपा ही
जरा सा वक़्त बीते और एक परिवार लगता था
बड़ा विश्वास था सब पर
और तब आदमी को आदमी भी तो
ज़रा सी चूक हो जाने पे
ऐसे तो ना ठगता था.
मानता हूँ
बहुत आराम तन को मिलता है इसमें
की जब
बाहर की तपती धूप, गर्मी और पसीने से
बचाता है ये वातानुकूलित रेल का डिब्बा
मगर भाई मेरे
ना जाने क्यों
मुझे यह लग रहा है कि
ये अपने रिश्तों में भी जैसे
ठंडक घोल देता है
वरना उस धूल, गर्मी और पसीने वाले डिब्बे में
तो अब तक
अजनबी भी अजनबी से बोल देता है.
कहाँ जायेंगे भाई सा’ब?
अरे हम भी उधर के हैं!!!!!
ये
और ऐसी बातों से
बातें आगे बढ़ निकलती हैं
और यहाँ
सब खुद में इतने गुम हैं कि
सारा डिब्बा है भरा फिर भी
जैसे कोई ना हो इसमें
ऐसी चुप्पी छाई है
कभी सॉरी, कभी एक्स्कूज मी
को छोड़ कर अब अब तक
किन्ही बातों कि कोई आवाज़
कहीं से भी ना आई है.

बढ़ाकर हाथ खिड़की से
कप वो चाय का लेना
खुली खिड़की
खुले दिल
और खुले मन से
बहारों का
नजारों का
हवाओं का मज़ा लेना.
किसी बुज़ुर्ग या महिला को खड़ा देखकर
मानवी एहसास से
एडजस्ट हो जाना
और यहाँ
सम्भ्रांत नागरिकों के इस डिब्बे में
बड़ा मुश्किल है
संवेदनाओं का ठहर पाना.
ना जाने क्यों
मुझे ये लग रहा है कि
प्रकृति के कुछ
कष्टप्रद पहलुओं से
बचने के लिए
हमने
जुटाई हैं जो तकनीकें
हम उन्हीं के गुलाम हुए जा रहे हैं
और उन कुछ पहलुओं से बचने कि कोशिश में
हम
प्रकृति से ही दूर हुए जा रहे हैं.
नहीं भाता विचारों का कैद हो जाना
नहीं भाता इरादों का भलाई से इतर जाना
नहीं भातीं हैं इतनी औपचारिकताएं अपनों से
नहीं भाता वसुधैव कुटुम्बकम् का सिमट जाना.
  
मेरे भाई
उठो
अब मन कि खिड़कियाँ खोलें
यांत्रिक तन्द्रा से जागें
आपस में कुछ बोलें
रहें ना शान्त अपने में
नेह रिश्तों में कुछ घोलें.
तोड़ दें दायरे छोटे
मुस्कराएं, हंसें, खिलखिलाएं
कुछ सुनें
कुछ अपनी सुनाएं
ऐसे जियें
कि ध्येय तक
पहुँचाने वाला ये सफर
यादगार हो जाए
हर पल एक याद छोड़ जाए

सफर में अर्थ जुड़ जाए.